सुनो द्राैपदी ! शस्त्र उठा लो – द्राैपदी ! कथा द्रौपदी की कविता !

सुनो द्राैपदी ! शस्त्र उठा लो – द्राैपदी ! कथा द्रौपदी की कविता ! द्रोपदी चीर हरण प्रसंग ! द्रौपदी नोच डाली गयी घर से सीता निकाली गयी

द्रौपदी चीरहरण कविता (सुनो द्राैपदी ! शस्त्र उठा लो – द्राैपदी)

1.

सुनो द्राैपदी ! शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आएंगे

सुनो द्राैपदी ! शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आएंगे…
छोड़ो मेहंदी खड्ग संभालो,
खुद ही अपना चीर बचा लो,
द्यूत बिछाए बैठे शकुनि,
मस्तक सब बिक जाएंगे
सुनो द्राैपदी! शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आएंगे..

कब तक आस लगाओगी तुम, बिक़े हुए अखबारों से..
कैसी रक्षा मांग रही हो दुःशासन दरबारों से..
स्वयं जो लज्जाहीन पड़े हैं..
वे क्या लाज बचाएंगे..
सुनो द्राैपदी! शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आएंगे..

कल तक केवल अंधा राजा, अब गूंगा-बहरा भी है..
होंठ सिल दिए हैं जनता के, कानों पर पहरा भी है..
तुम ही कहो ये अंश्रु तुम्हारे,
किसको क्या समझाएंगे?
सुनो द्राैपदी! शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आएंगे..

2.

द्रोपदी चीर हरण प्रसंग

Dropadi Cheer Haran Poem in Hindi
द्रोपदी चीर हरण प्रसंग – यह कविता मुझे बहुत ही हृदय स्पर्शी लगी. इसे श्वेता राय ने लिखा है.

अग्निकुंड से थी वो जन्मी, सुंदरता की मूरत थी।
द्रुपद सुता वो ज्ञान मान में, माँ वाणी की सूरत थी।।
आज भूमि पर गिरी पड़ी वो, आभा से भी हीन हुई।
इंद्रप्रस्थ की थी वो रानी, पर वैभव से दीन हुई।

श्यामल निर्मल देह सुकोमल, धधक रहा अपमान से।
ललना चोटिल थी वो लगती, टूट चुके अभिमान से।।
मुखमण्डल पर क्षोभ घना था, आँखों से बहता निर्झर।
केश राशियाँ काल सर्प सी, बिखर उड़ रहीं थी फरफर।।

बैठे थे धृतराष्ट्र पितामह, द्रोणाचार्य भी साथ में।
शूरवीर सम्मानित सारे, हाथ मले बस हाथ में।।
वो रानी थी रजस्वला जो, घिरी खड़ी दरबार में।
खींच रहा दुःशासन जिनको, पूजित थी संसार में।।

दृग कपाट थे बन्द वहां सब, विदुर छोड़ दरबार गये।
वाणी से कौरव अब अपने, मर्यादा के पार गये।।
कर्ण कहे दुःशासन से अब, पांचाली निर्वस्त्र करो।
हार चुके पांडव चौसर में, अब इससे मन मोद भरो।।

देख रही कृष्णा बन कातर, शूरवीर अपने स्वामी।
बैठे थे लाचार वहां सब, जगत् कहे जिनको नामी।।
शोकाकुल थे मौन वहां सब, लज्जा से गड़ते जाते।
कौन है मेरा कहे द्रोपदी, कब उत्तर वो दे पाते।।

बीच सभा में खड़ी द्रोपदी, मांग रही सत की भिक्षा।
कहती है वो राजसभा से, भूल गए क्या सब शिक्षा।।
एक वस्त्र में आज यहाँ मैं, दल दल में गिरती जाती।
धर्म पुरोधाओं क्या तुमको, लाज तनिक भी है आती।।

मान तुम्हारा ही क्या जग में, क्या मेरा सम्मान नहीं।
दांव लगा बैठे क्यों पांडव, क्या मुझमें अभिमान नहीं।।
बैठे हैं चुप आप पितामह कुल की ज्योति मलीन हुई।
आज लगा मुझको धरती ये, वीर पुरुष से हीन हुई।।

वस्त्र पकड़ कर खड़ी द्रोपदी, पास खड़ा है दुःशासन।
दुर्योधन कहता अब लाओ, जंघा पर दे दो आसन।।
बचा सके अब स्वाभिमान को, नियती से वो उलझ पड़ी।
बलशाली कौरव के आगे, क्षमता भर थी लड़ी खड़ी।।

भूल गई वो राजसभा अब, भूल गई वो मर्यादा।
उमड़ पड़े दृग नद से आँसू, पीर बढ़ गई जब ज्यादा।।
भूल गई वो तन अपना फिर, भूल गई संसार को।
याद रहे बस किशन कन्हाई, थे बचपन के प्यार जो।।

आओ सुनो द्वारिकावासी, बनवारी हे गिरधारी।
प्रेमरूप गोपी बल्लभ अब, जीवन लगता ये भारी।।
झेल रही अपमान यहाँ मैं, शक्तिमान हे मीत सुनो।
हार गये हैं पांडव मुझको, अजब खेल की रीत सुनो।।

गोविंदा हे कृष्ण कन्हाई, आओ बन जीवन दाता।
कहाँ छुपे हो ब्रजनंदन तुम सर्वजगत् के हो ज्ञाता।।
मीत! शरण में आन खड़ी मैं, रक्षा मेरी आज करो।
लाज बचाने को मधुसूदन, आकर मेरी बाँह धरो।।

हे कान्हा आओ की रट सुन कम्पित वसुधा डोल रही।
करुणा कातर आर्द्र स्वरों में, हवा वहां की बोल रही।।
बेसुध हो फिर गिरी द्रोपदी, धर्म पताका थी रोती।
आज एक नारी पुरुषों में, वैभव अपना थी खोती।।

दर्पयुक्त मदमस्त दुःशासन, वस्त्र खींचता जोर से।
कृष्णा की कातर ध्वनियाँ सब, लोप हुईं थी शोर से।।
कोलाहल से भरी सभा वो, कब समझी थी पीर को।
लगा हांफने खींच खींच वो, द्रुपद सुता की चीर को।।

भूधर एक विशाल बन गया, दस गज वस्त्र अपार हुआ।
निर्वस्त्र द्रोपदी को करना, कौरव क्षमता के पार हुआ।।
लिए वास थे कृष्ण कन्हाई, मलिन रजस्वला चीर में।
वस्त्र रूप बन कर वो आये, द्रुपदसुता के पीर में।।

भीषण तम जब घना अँधेरा,तिमिर नाश करने आते।
ज्ञान मान मर्यादा गरिमा, संबल बन सब पर छाते।।
साक्षी बन भगवान कह रहे, मीत सदा अपने होते।
विमुख समय में साथी कोई, कभी कहाँ छोड़े रोते।।

जय बोलो मधुसूदन की सब, जय बोलो गिरधारी की।
जब बोलो सब मीत मिताई, जय बोलो बनवारी की।।
जय उसका जो अजिर साथ है, जय भावों के रानी की।
जय हो राजा अमर प्रेम के, जय हो प्रीत कहानी की।।
– श्वेता राय

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3.

कथा द्रौपदी की…तब से अब तक

अग्नि जैसा जीवन , एक प्रश्न चिन्ह था सम्मान उसका।
वो यज्ञ के ताप से निकली थी, यग्नसैनी था नाम उसका।।

पतझड़ सा जीवन पथ द्रुपद कन्या का, थी कंटकों की सहेली वो।
न सखियाँ, ना बाबुल का दुलार, न गुड्डे-गुड़ियों से खेली वो।।

अद्भूत थी, आलोकिक थी, कुछ ऐसा उसने स्वरुप लिया।
न बचपन देखा, न बचपना, सीधे युवती का रूप लिया।।

था कोमल सुन्दर मन, पर भावनाओं से बंजर हुआ।
सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर ने जीता उसे, जब समय घटित स्वयंवर हुआ।।

अर्जुन पत्नी का मान पा कर भी, सम्मान मैं वह घट गयी।
कुंती के एक ब्रह्मवाक्य से, वो पाँच भाइयों में बँट गयी।।

वो पांडव कुल की कुलवधू, फिर भी क्षण-क्षण अपमान मिला।
द्रुपद की द्रौपदी को था, पांचाली का नाम मिला।।

फिर वो दिन आया, जब आर्यवीर सभी, मर्यादा सीमा के पार गए।
जब धर्मराज अधर्म में ऐसे उलझे, कि धर्म पत्नी को हार गए।।

न समझा कोई नारी का शोषित मन, न कोई अपने संस्कार समझा।
दुर्योधन ने जीती हुई दासी पर, बस अपना ही अधिकार समझा।।

घनघोर लज्जित उस सभा में फिर, अन्याय का समावेश हुआ।
जब दुशाशन को पांचाली के, वस्त्र हरण का आदेश हुआ।।

क्या यही है, अंत का अंतिम क्षण, सारी धरा थी सोच रही।
रथी महारथी सबसे थी, द्रौपदी ये प्रश्न पूछ रही।।

क्यों ये संसार देखना चाहता है, विकराल स्वरुप अगाध मेरा।
क्या पांडवो को स्वीकार करना, यही था एक अपराध मेरा।।

क्या रही नहीं करुणा भी शेष, है इतनी हिंसक हो गयी।
क्यों समरवीरों की सभा आज, सारी नपुंसक हो गयी।।

जो अंतिम विश्वास के क्षण थे बचे, सब रेत की तरह ढह गए।
हूँ मैं विवश क्षमा करना, जब पितामह भी ये कह गए।।

अश्रुओं में बह गया सभी, जो पांचाली ने श्रृंगार किया।
ये सम्मानित नहीं ये शापित है, ऐसे राधेय ने भी हुंकार किया।।

थे सारे वीर शीश झुकाए हुए, तो फिर किसे निहारती वो।
ऐसे में न बुलाती गोविन्द को, तो फिर किसे पुकारती वो।।

एक चीर का ऋण था गोविन्द पर, सो उसे भी द्वारकाधीश ने उतार दिया।
भरी सभी में कृष्ण ने फिर, कृष्णा का श्रृंगार किया।।

बोली कुंठित द्रुपद कन्या कि, आज विवश हैं पर न सोचना कि तुम्हें छोड़ देंगे।
अब खुले रहेंगे केश मेरे, अब पांडव मेरा प्रतिशोध लेंगे।।

अब धोने को तुम्हारे केश, न नीर दूंगा न तुम्हारे चोटिल मन को धीर दूंगा।
प्रतिज्ञा ली भीमसेन ने दुशासन की छाती चीर दूंगा।।

इस घटना ने महाप्रलय का सृजन किया, यह तो व्यास भी मानते हैं।
फिर महाभारत के महाराण का महासमर हम सभी जानते हैं।।

फिर थर थर काँपी वसुंधरा, जब तक वो समर समाप्त हुआ।
प्राण प्रिय अभिमन्यू भी वीर गति को प्राप्त हुआ।।

ये सिर्फ त्रेता द्वापर की बात नहीं, ये किरदार आज भी ज़िंदा हैं।
है द्रौपदी आज की शोषित सी, और पांडव उसके शर्मिंदा हैं।।

हैं कानून, प्रशासन, परिवार, पत्रकार और नेता सभी पांडवों के किरदार में।
सब विवश बैठे हैं द्रौपदी के निर्वस्त्र होने के इंतज़ार में।।

अब द्रौपदी प्रश्न न पूछेगी, उसे खुद प्रश्न बनना होगा।
कलयुग मैं गिरधर न आयेंगे, उसे स्वयं कृष्ण बनना होगा।।

आज की द्रौपदी की लाज नहीं धुलनी चाहिए।
आज की द्रौपदी को यह बात नहीं भूलनी चाहिए।।

के वही शक्ति है और उसे ही शक्ति का सँचार करना होगा।
अपने ही हाथों से दुशाषन का संहार करना होगा।।

फिर कोई दुर्योधन या आर्यव्रत उसे टोक नहीं सकता।
द्रौपदी जब दुर्गा बन कर आगे बढ़ेगी, तो उसे कोई रोक नहीं सकता ।।

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4.

द्रौपदी नोच डाली गयी घर से सीता निकाली गयी / अभिनव अरुण

द्रौपदी नोच डाली गयी घर से सीता निकाली गयी
आज या कल के उस दौर में मैं कहाँ कब संभाली गयी।।

सब्र तक मुझको मोहलत मिली कब कली अपनी मर्ज़ी खिली,
एक सिक्का निकाला गया मेरी इज्ज़त उछाली गयी।।

लड़का लूला या लंगड़ा हुआ गूंगा बहरा या काला हुआ,
मुझसे पूछा बताया नहीं सबको मैं ही दिखा ली गयी।।

दौर कैसा अजब आ गया एक सबको नशा छा गया,
सब हैं पैसे के पीछे गए सबकी होली दिवाली गयी।।

है न चौकी पुलिस की जहां चाय पीते रहे तुम वहाँ,
एक काली सफारी रुकी एक लड़की उठा ली गयी।।

दिन में जो थी बरामद हुई रात भर थाने में वो रही,
रात भर जांच उसकी हुई तुमने सोचा बचा ली गयी।।

चार कसमों की बाते हुईं चार वादों की रातें हुई,
चार तोह्फ़े दिखाए गए इस तरह वो मना ली गयी।।

बाप की सांस टूटी ही थी माँ को बंधक बनाया गया,
फिर अंगूठा लगाया गया फिर वसीयत बना ली गयी।।

अपने सारे पराये हुए लोग भाड़े के लाये हुए,
मौत तनहाइयों में हुई और रोने रुदाली गयी।।

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